वैज्ञानिक उपलब्धियों का स्रोत-मस्तिष्क की अल्फ़ा तरंग अवस्था
योग का उपयोग प्राचीन शिक्षा पद्धति का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था।जिसके कारण ही उस समय भारतीय शिक्षा विश्वस्तरीय हुआ करता था।जब से हम विभिन्न कारणों से अपने प्राचीन ज्ञान रूपी विरासत को नजर अंदाज करना शुरू किए है तभी से शिक्षा के क्षेत्र में हम विश्व स्तर पर पिछड़ने लगे है।
प्राचीन शिक्षा में उपयोग किये जाने वाले योग के विभिन्न चरणों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान के साथ मनोविज्ञान के उपयोग से विद्यार्थियो में सुप्त अवस्था में छिपी मस्तिष्क क्षमता जाग्रत होकर विशेष प्रतिभा के रूप में प्रकट होता है। जिसका शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक उपयोग शिक्षा के क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि सिद्ध हो सकती है।
अभी तक हम प्रायः योग को सिर्फ शारीरिक चिकित्सा या साधना सिद्धि की अत्यंत कठिन प्रक्रिया मानते आए है।लेकिन योग का सिर्फ इतना ही उपयोग है ऐसा नही है।
प्राचीन काल से योग बहुआयामी ज्ञान है।यह पूर्णतः वैज्ञानिक विधि है। यह मानव के सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया है।यह चूँकि मन-मस्तिष्क से सर्वाधिक सम्बंधित है। और भारतीय योग के सभी आठ आयाम- यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा, ध्यान,समाधि मूलतः मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने की वैज्ञानिक विधि है।तथा शिक्षा भी चूँकि मन- मस्तिष्क पर आधारित है।इसलिए शिक्षा में योग अत्यधिक उपयोगी है।योग की प्रक्रियाएँ मस्तिष्क को अधिकाधिक विकसित कर देती है।इसीलिए योग-ध्यान के उपयोग से प्राचीन विद्वान् अत्यधिक बौद्धिक क्षमता का परिचय देते थे।और बिना किसी विशेष सुविधा या बिना किसी उन्नत प्रयोगशाला के विभिन्न महत्वपूर्ण शोध,अविष्कार,सृजन करने में समर्थ होते थे।
अपने देश के शिक्षा के क्षेत्र में इस बहुउपयोगी प्राचीन विरासत को सामने लाकर उपयोगी बनाना हमारे देश के विश्वगुरु,विकसित होने में सहयोगी होगा।अभी हमारे देश की शिक्षा लार्ड मैकाले की गुलाम बनाने वाली शिक्षा पद्धति के चक्कर में न तो पूर्णतः प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को अपना पाया है;और न विदेशी विकसित देशों की तरह अत्याधुनिक विश्वस्तरीय हो पाया है।
जबकि विकसित देशों की शिक्षा में प्राचीन भारत की तरह योग के विभिन्न आधुनिक रूप- मिड ब्रेन एक्टिवेशन, ध्यान ,एन.एल.पी.तकनीक,हिप्नोथैरेपी ,उन्नत मनोविज्ञान, कृत्रिम-पुनर्जन्म आदि मस्तिष्क क्षमता विकास तकनीको के उपयोग से शिक्षा का स्तर अत्यंत उन्नत हो चुका है। आधुनिक या प्राचीन समय में जितने भी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि प्राप्त हुए हैं।वे सब वैज्ञानिको के गहरे एकाग्रता अर्थात ध्यान की चेतना अवस्था या मस्तिष्क की अल्फ़ा तरंग की अवस्था में हुए हैं। और हम उसी हजारो साल से उपलब्ध ज्ञान के श्रोत को अंधविश्वास मानकर ,नजरअंदाज करके विकासशील देश की सूची में स्थान बनाए हुए है।
आवश्यकता सिर्फ अपने प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदत्त मानव मन-मस्तिष्क क्षमता विकास सम्बन्धी ज्ञान को पहचान कर स्कुल तथा उच्च शिक्षा में उपयोग करने की है। जिससे हमारा देश भी विकसित देशों के समकक्ष या उससे भी बेहतर स्थिति को उपलब्ध कर सके।भारत के ज्ञान रूपी सूर्य से पूरा विश्व प्रकाशित हो सके।
धन्यवाद
योग का उपयोग प्राचीन शिक्षा पद्धति का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था।जिसके कारण ही उस समय भारतीय शिक्षा विश्वस्तरीय हुआ करता था।जब से हम विभिन्न कारणों से अपने प्राचीन ज्ञान रूपी विरासत को नजर अंदाज करना शुरू किए है तभी से शिक्षा के क्षेत्र में हम विश्व स्तर पर पिछड़ने लगे है।
प्राचीन शिक्षा में उपयोग किये जाने वाले योग के विभिन्न चरणों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान के साथ मनोविज्ञान के उपयोग से विद्यार्थियो में सुप्त अवस्था में छिपी मस्तिष्क क्षमता जाग्रत होकर विशेष प्रतिभा के रूप में प्रकट होता है। जिसका शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक उपयोग शिक्षा के क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि सिद्ध हो सकती है।
अभी तक हम प्रायः योग को सिर्फ शारीरिक चिकित्सा या साधना सिद्धि की अत्यंत कठिन प्रक्रिया मानते आए है।लेकिन योग का सिर्फ इतना ही उपयोग है ऐसा नही है।
प्राचीन काल से योग बहुआयामी ज्ञान है।यह पूर्णतः वैज्ञानिक विधि है। यह मानव के सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया है।यह चूँकि मन-मस्तिष्क से सर्वाधिक सम्बंधित है। और भारतीय योग के सभी आठ आयाम- यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा, ध्यान,समाधि मूलतः मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने की वैज्ञानिक विधि है।तथा शिक्षा भी चूँकि मन- मस्तिष्क पर आधारित है।इसलिए शिक्षा में योग अत्यधिक उपयोगी है।योग की प्रक्रियाएँ मस्तिष्क को अधिकाधिक विकसित कर देती है।इसीलिए योग-ध्यान के उपयोग से प्राचीन विद्वान् अत्यधिक बौद्धिक क्षमता का परिचय देते थे।और बिना किसी विशेष सुविधा या बिना किसी उन्नत प्रयोगशाला के विभिन्न महत्वपूर्ण शोध,अविष्कार,सृजन करने में समर्थ होते थे।
अपने देश के शिक्षा के क्षेत्र में इस बहुउपयोगी प्राचीन विरासत को सामने लाकर उपयोगी बनाना हमारे देश के विश्वगुरु,विकसित होने में सहयोगी होगा।अभी हमारे देश की शिक्षा लार्ड मैकाले की गुलाम बनाने वाली शिक्षा पद्धति के चक्कर में न तो पूर्णतः प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को अपना पाया है;और न विदेशी विकसित देशों की तरह अत्याधुनिक विश्वस्तरीय हो पाया है।
जबकि विकसित देशों की शिक्षा में प्राचीन भारत की तरह योग के विभिन्न आधुनिक रूप- मिड ब्रेन एक्टिवेशन, ध्यान ,एन.एल.पी.तकनीक,हिप्नोथैरेपी ,उन्नत मनोविज्ञान, कृत्रिम-पुनर्जन्म आदि मस्तिष्क क्षमता विकास तकनीको के उपयोग से शिक्षा का स्तर अत्यंत उन्नत हो चुका है। आधुनिक या प्राचीन समय में जितने भी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि प्राप्त हुए हैं।वे सब वैज्ञानिको के गहरे एकाग्रता अर्थात ध्यान की चेतना अवस्था या मस्तिष्क की अल्फ़ा तरंग की अवस्था में हुए हैं। और हम उसी हजारो साल से उपलब्ध ज्ञान के श्रोत को अंधविश्वास मानकर ,नजरअंदाज करके विकासशील देश की सूची में स्थान बनाए हुए है।
आवश्यकता सिर्फ अपने प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदत्त मानव मन-मस्तिष्क क्षमता विकास सम्बन्धी ज्ञान को पहचान कर स्कुल तथा उच्च शिक्षा में उपयोग करने की है। जिससे हमारा देश भी विकसित देशों के समकक्ष या उससे भी बेहतर स्थिति को उपलब्ध कर सके।भारत के ज्ञान रूपी सूर्य से पूरा विश्व प्रकाशित हो सके।
धन्यवाद
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