योग-रहस्य

योग का आंतरिक रहस्य-

        प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों के अनुसार- पतंजलि योग से भी पहले योग का खोज/आविष्कार हो चुका था। पतंजलि मुनि ने विभिन्न योग पद्धतियों की जटिलताओं को दूर करते हुए सरल समन्वित रूप में योग की एक वैज्ञानिक पद्धति विकसित की जिसे पतंजलि योग कहा जाता है। जिससे आज हम स्वामी रामदेव जी के माध्यम से परिचित हो रहे हैं।
        योग जैसे नाम से ही स्पष्ट है, जिसका अर्थ है- जोड़ या जुड़ना। लेकिन किससे और क्यों जुड़ना?
        मानव मन/ चेतना जन्म के साथ चेतन मन के विकसित होने के पहले अर्थात "बचपन" में स्वयं को अस्तित्व/ प्रकृति के साथ विभिन्न रूपों में जाने अनजाने जुड़ा हुआ (अपनत्व) अनुभव करता है, जिसके कारण ही वह/बच्चा अपने आप को काफी ऊर्जावान तथा प्रसन्न (आनंदित) अनुभव कर पाता है।
       लेकिन- इंसान उम्र बढ़ने/ चेतन मन के विकसित होने के अर्थात परिवार, समाज, संसार के धर्म, शिक्षा-संस्कार, विभिन्न विचार-मान्यता के  प्रभाव में आने के साथ धीरे-धीरे अपने आप को अस्तित्व के सभी चीजों/लोगों (मानवता) से विभिन्न रूपों में अलग अनुभव करने लगता है, जो मानव के अपने आप को अतृप्त, थके हुए, अस्वस्थ, तनाव, दुखी- परेशान अनुभव करने का मुख्य प्राकृतिक कारण है।
        जिसको दूर करने अर्थात अपने पूर्व अवस्था/ मूल अवस्था बालक भगवान के समान की अवस्था को अनुभव करने की प्रक्रिया का नाम योग है।
       अपने सूक्ष्म शरीर के  मूलाधार चक्र में स्थित कुंडलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र से, चेतन मन-मस्तिष्क को अचेतन मन-मस्तिष्क से, अपने बाएं स्वर ( इड़ा नाडी) को दांये स्वर ( पिंगला नाड़ी) से अर्थात अपने सूर्य स्वर को चंद्र स्वर से अपने भौतिक शरीर को सूक्ष्म शरीर से, स्वयं को प्रकृति से, स्वयं को समस्त मानवता से जुड़ा हुआ अनुभव कर पाने, प्रकृति प्रदत्त स्वयं में छिपी अपार प्रतिभा-क्षमता, परा और अपरा शक्ति को, योग में वर्णित अष्ट सिद्धियों को, भौतिक के साथ अभौतिक शरीर/संसार/अस्तित्व, अहम ब्रह्मास्मि की स्थिति को अनुभव कर पाने अर्थात समझ पाने का नाम योग है।
        योग का क्षेत्र काफी व्यापक है। सिर्फ आसन और प्राणायाम का अभ्यास ही योग नहीं है, बल्कि इसके पहले यम नियम के रूप में अपने व्यक्तित्व में सुधार लाना योग का प्रारंभिक रूप है। इसके पश्चात आसन प्राणायाम का नंबर आता है, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में प्रारंभ में स्वास्थ्य चिकित्सा के रूप में आसन प्राणायाम के अभ्यास के पश्चात भी यम नियम को अपने व्यक्तित्व में उतारा जा सकता है/अपनाना आवश्यक है, क्योंकि यह योग का अनिवार्य हिस्सा है।
        यम नियम आसन प्राणायाम के पश्चात प्रत्याहार के रूप में मन को अध्यात्म की ओर/ स्वयं/ अस्तित्व के सत्य की ओर मोड़ने अर्थात अंतर्मुखी होने का अभ्यास किया जाता है। जो धारणा के रूप में मन को एकाग्र करने के लिए अनिवार्य है। अपने मन को किसी एक विषय पर लंबे समय तक टिकाए रखने का अभ्यास/ क्षमता धारणा है।
        धारणा के रूप में मन की एकाग्रता के पश्चात अपने आप को समग्र के प्रति समर्पित कर देना विचार शून्य हो जाना/ समग्रता/ अस्तित्व/ ब्रम्ह के साथ एक अनुभव करने के लिए स्वयं को अस्तित्व के सहारे छोड़ देना ध्यान का अभ्यास है।
        और लंबे समय तक सतत ध्यान की अवस्था में बने रहना ही योग की अंतिम अवस्था समाधि है। इसी अवस्था में  योग साधक को अहम् ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है।
        योग के प्रारंभिक चरण पांच चरण- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार, योग के मुख्य चरण/ अवस्था "धारणा-ध्यान-समाधि" को अनुभव कर पाने की तैयारी है।
        जिसको अनुभव करना ही योग का मूल उद्देश्य, अंतिम उपलब्धि अर्थात परम ज्ञान है।
       चूँकि- योग का क्षेत्र काफी व्यापक है, इसीलिए आसन प्राणायाम या पतंजलि योग के अलावा भी योग के और अनेक विभिन्न प्रकार हैं जैसे- हठयोग, राजयोग, सांख्ययोग (ज्ञान योग), कर्मयोग, लययोग, भक्ति योग, नाद योग, तंत्र योग, मंत्रयोग, ध्यान योग, स्वर योग आदि........।
        योग के सीमित/जटिल प्रचलित ज्ञान-समझ के बीच यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि- आप इनमे से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से किसी भी तरह के अभ्यास को कर रहे हैं तो समझ लीजिए आप जाने अनजाने योग का अभ्यास/ योग साधना कर रहे हैं। योग की पूर्णता अनुभव के क्रम में है.......।
                           (धन्यवाद)
          - रामेश्वर वर्मा (शिक्षक पं.) की कलम से.......

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